लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद

आत्मीयता का माधुर्य और आनंद

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4187
आईएसबीएन :81-89309-18-8

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

380 पाठक हैं

आत्मीयता का माधुर्य और आनंद

आत्मीयता की अभिवृद्धि से ही माधुर्य एवं आनंद की वृद्धि


एकांगी उपासना का क्षेत्र विकसित कर अपना अहंकार बढ़ाने वाले व्यक्ति, ईश्वर के सच्चे भक्त नहीं कहे जा सकते। परमात्मा सर्व न्यायकारी है। वह एक ऐसे भक्त को जो अपना सुख, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहता हो, कभी प्यार नहीं कर सकता। संसार के और भी जितने प्राणी हैं वह सब उसी परमात्मा के प्यारे बच्चे हैं। किसी के पास शक्ति कम है, किसी के पास गुण कम हैं, तो इससे क्या ? अपने बच्चे पिता को समान रूप से प्यारे होते हैं। जो उसके सभी बच्चों को प्यार कर सकता हो परमात्मा का वास्तविक प्यार उसे ही मिल सकता है। केवल अपनी ही बात, अपने ही साधन सिद्ध करने वाले व्यक्ति लाख प्रयत्न करके भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता।

भक्तों के लक्षण बताते हुए भगवान् कृष्ण ने गीता में लिखा है-

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रीः करुणा एव च।
निर्मयो निरहंकारः सम दुःख सुखः क्षमी।।
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़ निश्चयः।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।

(गीता १२| १३ | १४)

"हे अर्जुन ! मैं उन भक्तों को प्यार करता हूँ जो कभी किसी से द्वेष भाव नहीं रखते, सब जीवों के साथ मित्रता और दयालुता का व्यवहार करते हैं। ममता रहित, अहंकार-शून्य, दुःख और सुख में एक-सा रहने वाला सब जीवों के अपराधों को क्षमा करने वाला, सदैव संतुष्ट, मेरा ध्यान करने वाला विरागी, दृढ़ निश्चयी और जिसने अपना मन-बुद्धि मुझे समर्पित कर दिया है, ऐसे भक्त मुझे अतिशय प्रिय हैं।"

यहाँ हमें एक बात समझ लेनी चाहिए कि यह सारा संसार भगवान के एक अंश में ही स्थित है। छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे सब उसी के बनाए हुए हैं। उनके हित और कल्याण का भी उसे ध्यान होना चाहिए केवल अपनी-अपनी इच्छाओं की तृप्ति ढूँढ़ने में यह कहाँ संभव है कि मनुष्य औरों के साथ द्वेष न करे। सुख की इच्छा में प्रतिस्पर्धा होती ही है। कामनाग्रस्त मनुष्य किसी की भलाई भी क्या कर सकेगा और ऐसा व्यक्ति परमात्मा की दया का अधिकारी भी क्यों बन सकेगा ?

चराचर जगत में एक ईश्वर की सत्ता ही अनेक रूपों में कार्य कर रही है। ईश्वर के एक अंग की उपासना की जाए. और अन्यों की बिल्कुल उपेक्षा की जाए तो परमात्मा उस भक्त से कैसे संतुष्ट हो सकता है। भक्ति का स्वरूप सर्वांगीण होना चाहिए। मुँह को भोजन कराया जाए और पाँवों को बाँधकर एक ओर पटक दिया जाए तो वह परमात्मा अपने उपासक की भावनाओं से कैसे संतुष्ट हो सकेगा। ईश्वर के पारलौकिक और अदृश्य जगत को यदि प्राण माना जाए और संपूर्ण संसार को उसकी देह, तो देह से भी उतना प्यार होना चाहिए जितना प्राण से। देह की उपेक्षा से प्राणों का अस्तित्व भी भला संभव हो सका है ?

ईश्वर के उपासक में श्रद्धा, भक्ति, एकाग्रता, बुद्धि की तीक्ष्णता के साथ-साथ जीव दया और प्रेम का भी समन्वय होना चाहिए क्योंकि प्रेम ही विश्व का आधार है, विश्व की आत्मा है। ईश्वर प्रेम भी विश्व प्रेम के अंतर्गत है। प्राणिमात्र के साथ सद्व्यवहार, आत्मीयता और मैत्री की भावना रखने वाले लोग उसे बिना प्रयास, बिना साधन प्राप्त कर लेते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. सघन आत्मीयता : संसार की सर्वोपरि शक्ति
  2. प्रेम संसार का सर्वोपरि आकर्षण
  3. आत्मीयता की शक्ति
  4. पशु पक्षी और पौधों तक में सच्ची आत्मीयता का विकास
  5. आत्मीयता का परिष्कार पेड़-पौधों से भी प्यार
  6. आत्मीयता का विस्तार, आत्म-जागृति की साधना
  7. साधना के सूत्र
  8. आत्मीयता की अभिवृद्धि से ही माधुर्य एवं आनंद की वृद्धि
  9. ईश-प्रेम से परिपूर्ण और मधुर कुछ नहीं

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book